हिंदू धर्म में पिंडदान का बहुत महत्व है। श्राद्ध पक्ष में पिंडदान करने से पूर्वज प्रशन्न होकर आशीर्वाद प्रदान करते हैं और परिवार में सुख शांति बनी रहती है। हर साल भाद्रपद माह की पूर्णिमा तिथि से लेकर आश्विन माह की अमावस्या तिथि तक पितृपक्ष होता है। इस दौरान हिंदू धर्म में पितरों के लिए श्राद्ध, तर्पण और पिंडदान किए जाने का विधान है। पुराणों के अनुसार ऐसा माना जाता है कि पितृ पक्ष में पिंडदान और तर्पण करने से पितरों की आत्मा को शांति मिलती है। साथ ही उनका आशीर्वाद भी प्राप्त होता है। श्राद्घ पक्ष में मृत परिजनों को याद किया जाता है और पूर्वजों को इसी श्रद्धापूर्वक याद करने को ही श्राद्घ कहा जाता है। इस तरह से परिजन अपने पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता और श्रद्धा को व्यक्त करते हैं। श्राद्घ के समय प्रातः काल में स्नान आदि करने के बाद इश्वर का ध्यान और भजन करना चाहिए। श्राद्घ के दौरान ही पिंडदान और तर्पण किया जाता है।
जो लोग पिंडदान नहीं करते हैं, उन लोगों को हमेशा किसी न किसी दुख या संकट से गुजरना पड़ता है। इसीलिए पिंडदान करना बेहद आवश्यक होता है। कई लोगों को पिंडदान का सही अर्थ ही नहीं पता होता है। इसीलिए वो पिंडदान जैसे कर्म नहीं करते हैं। इसीलिए आज हम सबसे पहले पिंडदान का मतलब समझते हैं। पिंडदान का अर्थ होता है अपने पूर्वजों या अपने पितरों को भोजन का दान करना। पुराणों के अनुसार ऐसा माना जाता है कि जो हमारे पूर्वज होते हैं, वो गाय, कुत्ता, कुआं, चींटी या देवताओं के रूप में आकर भोजन ग्रहण करते हैं। यही कारण है कि पितृ पक्ष के दौरान भोजन के पांच अंश निकालने का प्रावधान है। इस दौरान मृतक के निमित्त जौ या चावल के आटे को गूंथकर गोल आकार के पिंड बनाए जाते हैं और इसीलिए इस पूरी प्रक्रिया को पिंडदान के नाम से जाना जाता है।
पिंडदान के बाद अब तर्पण के बारे में जानते हैं। श्राद्ध पक्ष में तर्पण का भी विशेष महत्व है। तर्पण का अर्थ होता है जल का दान करना या फिर पितरों को तृप्त करना। पितृ पक्ष के दौरान हाथ में जल, कुश, अक्षत, तिल आदि लेकर पितरों का तर्पण किया जाता है। ऐसा करने के बाद दोनों हाथ को जोड़ा जाता है और हाथ जोड़कर पितरों का ध्यान करते हुए उन्हें आमंत्रित किया जाता है और जल को ग्रहण करने की प्रार्थना की जाती है। ऐसा करने से पितरों की आत्मा को शांति मिलती है और वो प्रसन्न होकर अपना आशीर्वाद सदैव परिवार पर बनाए रखते हैं।
वैसे, पिंडदान में पिंड के अलावा भी और कई चीजें होती हैं जिनका दान किया जाता है और बिना इनके पिंडदान अधूरा माना जाता है। इसमें सबसे ऊपर आता है तिल।
श्राद्ध पक्ष में पिंडदान और तर्पण के समय में जो सबसे प्रमुख चीज़ होती है वो है तिल। अक्सर लोग तिल को लेकर परेशान रहते हैं, कि काला तिल या फिर सफेद तिल, कौन सा तिल पिंडदान में प्रयोग करना चाहिए। तो इसका उत्तर है काला तिल। पिंडदान में हमेशा काले तिल का प्रयोग किया जाता है। तिल के साथ ही तर्पण में कुशा का प्रयोग भी काफी महत्वपूर्ण माना जाता है। वायु पुराण के अनुसार ऐसा माना जाता है कि कुशा और तिल के साथ जो भी कुछ श्रद्धा से पितरों को अर्पित किया जाता है, वो अमृत के रूप में उन्हें प्राप्त होता है। फिर चाहे पितर किसी भी रूप या योनि में क्यों न हों, उन्हें वो उसी रुप में प्राप्त होता है। तिल का महत्व इतना क्यों है, इसके बारे में आगे इस लेख में हम बात करेंगे।
यह भी पड़े : भारत में अगर इन स्थानों पर किया जाता है पितरों का श्राद्ध तो प्राप्त होता है सीधा मोक्ष
पिंडदान में तिल का महत्व:-
पितरों को भगवान विष्णु का रूप में माना जाता है और इसी के साथ ही तिल और कुशा ये दोनों भी भगवान विष्णु के शरीर से निकले हैं। यही कारण है कि इन दोनों का विषेश महत्व है। काले तिल का प्रयोग पिंडदान में इसलिए किया जाता है क्योंकि ये भगवान विष्णु का प्रिय है और इसको देव अन्न के रूप में जाना जाता है। पितर भगवान विष्णु के ही रूप हैं, इसीलिए उन्हें भी काला तिल प्रिय होता है। इसी वजह से हमेशा काले तिल से ही पिंडदान करने का विधान बताया जाता है। अगर काले तिल के बिना तर्पण या श्राद्ध किया जाता है, तो ऐसी मान्यता है कि वो पूर्वज ग्रहण नहीं करते हैं और दुष्ट आत्माएं उन्हें ग्रहण कर लेती हैं और फिर इंसान को परेशान करने लगती हैं। वहीं कुशा का भी विशेष महत्व है। गरुण पुराण में इसका जिक्र किया गया है। गरुण पुराण में ऐसा बताया गया है कि कुश में भगवान ब्रह्मा, विष्णु और महेश निवास करते हैं। इसकी जड़ में ब्रह्मा, मध्य में भगवान विष्णु और अग्रभाग में महेश निवास करते हैं। कुश का अग्रभाभ देवताओं का, मध्य मनुष्यों का और जड़ पितरों का माना जाता है। कुशा और तिल दोनों पितरों को काफी प्रिय होते हैं और ये दुष्ट आत्माओं को भगाने में भी सहायक होते हैं। ऐसा माना जाता है कि तिल का दान कई सेर सोने के दान करने के बराबर होता है और बिना तिल के पितरों को जल की भी प्राप्ति नहीं होती है।
तिल की उत्पत्ति कैसे हुई?
तिल की इतनी महत्ता क्यों है, ये बात इसकी उत्पत्ति से जुड़ी हुई है। पौराणिक कथाओं में इसकी उत्पत्ति के बारे में जानकारी मिलती है। जब हिरण्यकश्यप अपने पुत्र प्रहलाद को काफी परेशान कर रहा था तो भगवान विष्णु को काफी क्रोध आया। भगवान विष्णु का क्रोध इतना ज्यादा बढ़ गया था कि वो क्रोध की वजह से पसीने से भीग गए थे। उनका पसीना जब धरती पर गिरा तो उनके पसीने की बूंद ही तिल के रूप में उत्पन्न हुई। यही कारण है कि तिल को गंगाजल के समान ही पवित्र माना जाता है और पिंडदान में इसका विशेष महत्व है। जैसे गंगाजल के स्पर्श से मृत आत्माएँ वैकुंठ के द्वार तक पहुंच जाती हैं, ठीक वैसे ही काले तिल के दान से अतृप्त जीवों और भटकती आत्माओं को मोक्ष की प्राप्ति होती है।