हिंदू धर्म में अंतिम संस्कार को लेकर भी अलग अलग मान्यता चली आ रही है। अंतिम संस्कार को पूरे रीति रिवाज और नियमों का पालन करके ही किया जाना चाहिए। ऐसा कहा जाता है कि जब तक मृत व्यक्ति का अंतिम संस्कार पूरे विधि विधान से नहीं किया जाता है, तब तक उसकी आत्मा तृप्त नहीं होती है। इसीलिए आत्मा की मुक्ति के लिए ये ज़रूरी है कि मृत शरीर का अंतिम संस्कार अच्छे से किया जाए।
वहीं आप सबको यह भी पता ही होगा कि हिंदू धर्म में अंतिम संस्कार करने का जो हक है वो सिर्फ बेटों को ही दिया गया है, बेटियों को अंतिम संस्कार करने की अनुमति नहीं है। लेकिन क्या आप सभी ने कभी इस पर विचार किया है? मान लीजिए कि किसी के पास बेटा है ही नहीं और उनके पास बेटी है, तो ऐसे में वो क्या करेंगे? अब वो अंतिम संस्कार करने के लिए बेटा कहां से लाएंगे? ये एक ऐसा सवाल है जिस पर लोग तरह तरह की टिप्पणी देते हैं। इस पर कई बार विवाद भी हुआ है।
आज हम आप सभी को इसी सवाल का जवाब देने जा रहे हैं। इस पोस्ट में हम आप सबको बताएंगे कि लड़कियों को अंतिम संस्कार करने का हक मिलना चाहिए या नहीं। चलिए फिर जानते हैं।
हर नारी का यही है कहना, अंतिम संस्कार हक है मेरा-
ये एक परंपरा सदियों से चली आ रही है जिसमें लड़कों को ही बस अंतिम संस्कार करने का हक दिया गया है। जब भी किसी की मृत्यु होती है तो या तो उसका बेटा, या भाई, या भतीजा या फिर पति या पिता ही उसकी चिता को मुखाग्नि प्रदान करता है। एक तरह से यह कहा जा सकता है की मृतक के शरीर को मुखाग्नि देने का काम पुरूष समाज का ही है।
वैसे, एक नहीं बल्कि कई बार ऐसे उदाहरण सामने आए हैं जिसमें महिलाओं ने आगे बढ़कर अपने प्रियजनों का अंतिम संस्कार किया है। कहीं बेटी ने तो कहीं पत्नी ने अपने प्रियजनों को मुखाग्नि देने का काम किया है। इससे पुरुषप्रधान समाज की सोच थोड़ी सी बदली है। हां, एक समय था कि पुरुष को ही सर्वोपरि समझा जाता था। लेकिन उस दौर में सती प्रथा और पर्दा प्रथा को भी मान्यता प्राप्त थी। लेकिन जैसे जैसे समय बदला वैसे वैसे ये चीज़ें समाज से समाप्त होती चली गई।
समाज में अब लड़कियों को लड़कों के समान ही माना जाता है। जो काम लड़के करते हैं, अब लड़कियां भी उन कामों को करती है। ऐसे में अंतिम संस्कार करने से भी उन्हें वंचित नहीं किया जाना चाहिए। कई शास्त्र, कई धर्माचार्य बेटियों को इस कर्म को करने से रोकते हैं, लेकिन बेटियों को इसकी अनुमति मिलनी चाहिए। अब तो टीवी की बड़ी बड़ी अभिनेत्रियां बढ़ चढ़कर अपने प्रियजनों के मृत शरीर को मुखाग्नि देती हैं। ऐसा करने से भले ही धार्मिक लोग नाराज़गी जताएं मगर धर्म की आपसे कोई नाराज़गी नहीं होगी। ऐसा कहा भी गया है कि वो धर्म नहीं जो नाराज़ हो जाए, जो मुस्कुराए वो है धर्म!
कई सालों पहले एक फ़िल्म आई थी। इस फ़िल्म का नाम इंदिरा था और इसमें राज्यसभा सदस्य ‘हेमामालिनी’ ने मुख्य भूमिका निभाई थी। इसमें हेमा ने एक बेटी होकर बेटों वाले सारे काम किये थे और अंत में उन्होंने अपने पिता को मुखाग्नि भी प्रदान की थी। हालांकि इस पर काफी सामाजिक विरोध भी हुआ था। लेकिन फिर इसको ख़ारिज कर दिया गया यह कहते हुए कि आखिर क्यों बेटियां अंतिम संस्कार नहीं कर सकती हैं। ऐसे ही समय समय पर तमाम ऐसी फिल्में आईं और तमाम ऐसे लोग हुए हैं जिन्होंने बेटियों को अंतिम संस्कार करने के लिए बढ़ावा दिया है। जब आपके पास बेटी है तो फिर किसी और पुरुष को क्यों खोजना कि आकर अंतिम संस्कार करे। बेटियों से बड़ा भी क्या कुछ और हो सकता है।