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सर्वपितृ-अमावस्या-श्राद्ध

जीवन व मरण इस पृथ्वी पर चलने वाली निरंतर प्रक्रिया है। जो जीव जन्म लेता है उसकी मृत्यु निश्चित है। जन्म से लेकर मृत्यु तक मनुष्य रीति-रिवाजों के बंधन में बंधा रहता है। एक छोटे से बालक के जन्म के बाद से ही कई रीति-रिवाजों के साथ उसका दुनिया में स्वागत किया जाता है। जन्म के साथ शुरू हुए ये रीति रिवाज मनुष्य की मृत्यु तक निरंतर चलते रहते हैं। रीति रिवाज व संस्कारों की यह प्रतिक्रिया मनुष्य के मृत्यु के बाद भी निभाई जाती है।

जब मनुष्य की मृत्यु होती है अंतिम क्रिया रीति-रिवाजों के साथ संपन्न कराई जाती है। इसके साथ ही मनुष्य की आत्मा की तृप्ति के लिए श्राद्ध की क्रिया का करना भी अत्यंत आवश्यक है। ऐसी मान्यता है कि यदि मृतकों का श्राद्ध भली-भांति ना किया जाए तो उनकी आत्मा दरबदर भटकती रहती है।

भूल चूक से जिन पितरों का श्राद्ध भली-भांति नहीं हो पाता है, उनके लिए हिंदू पंचांग के अश्विन मास के कृष्ण पक्ष को पितृपक्ष के रूप में मान्यता दी गई है। जिसमें श्राद्ध करने से पितरों को मोक्ष की प्राप्ति होती है।

क्या है सर्वपितृ अमावस्या श्राद्ध का महत्व –

हिंदू पंचांग के अनुसार अश्विन मास के कृष्ण पक्ष को पितृपक्ष के रूप में जाना जाता है। अश्विन मास की अमावस्या तिथि को पितर पक्ष का समापन होता है। इस तिथि को सर्वपितृ अमावस्या के नाम से भी जाना जाता है। सर्वपितृ अमावस्या की तिथि को लेकर मान्यता है कि यह दिन पितरों के श्राद्ध का अंतिम दिन होता है। सर्व पितृ अमावस्या के दिन का बेहद खास धार्मिक महत्व है। पितृपक्ष के दौरान तिथि के अनुसार पितरों का श्राद्ध किया जाता है। परंतु जिन लोगों को अपने पूर्वजों की मृत्यु की तिथि ज्ञात नहीं होती है, वे सर्वपितृ अमावस्या वाले दिन पितरों का तर्पण अथवा श्राद्ध कर सकते हैं। इस दिन श्राद्ध करने से अपने कुल के सभी ज्ञात तथा अज्ञात पितरों के श्राद्ध की प्रक्रिया पूरी हो जाती है।

सर्वपितृ अमावस्या श्राद्ध की मान्यता –

हमारे सनातन धर्म में सर्वपितृ अमावस्या श्राद्ध की धार्मिक महत्वता अत्यधिक है। ऐसी धार्मिक मान्यता है कि पितृपक्ष के दौरान हमारे मृत पूर्वज व परिजन धरती पर विचरण करते हैं। पितृपक्ष के दौरान पितरों को यह आस होती है कि उनके पुत्र-पौत्रादि पिंडदान तथा तिलांजलि प्रदान कर उन्हें संतुष्ट करेंगे। इसी बात को ध्यान में रखते हुए पितर पक्ष के दौरान श्राद्ध व तर्पण करने का विधान है। पितर पक्ष के दौरान प्रत्येक दिन मरण तिथि के अनुसार पितरों का श्राद्ध किया जाता है। इस पक्ष में अमावस्या का खास महत्व होता है। क्योंकि इस दिन श्राद्ध करने से भूले-बिसरे, ज्ञात-अज्ञात सभी पितरों के श्राद्ध की प्रक्रिया पूरी हो जाती है। अमावस्या के दिन विधि विधान से श्राद्ध की प्रक्रिया करने से पितरों की आत्मा को मुक्ति मिलती है और श्राद्ध करने वाले को उनका आशीर्वाद मिलता है।

कैसे करें पितरों का श्राद्ध –

पितरों का श्राद्ध कर्म बहुत ही विधि विधान से किया जाना चाहिए। इसके लिए जिस दिन आपको श्राद्ध करना हो, उस दिन सुबह उठकर सर्वप्रथम स्नान करें। इसके बाद पितृस्थान को साफ सुथरा करें और इसे गाय के गोबर से लीपकर, इसे गंगाजल से पवित्र करें। इसके बाद अगर संभव हो सके तो घर के आंगन में और मुख्य द्वार पर रंगोली बनाएं। इसके बाद घर की जो महिलाएं हैं वो शुद्ध होकर ही पितरों के लिए भोजन तैयार करें और एक बात का विशेष ख्याल रखें कि भोजन एकदम सफाई से बना हुआ होना चाहिए। इसके बाद जो श्राद्ध के लिए श्रेष्ठ अधिकारी माना जाता है जैसे कि ब्राह्मण आदि को न्योता देकर श्राद्ध के लिए आमंत्रित करें। इसके बाद आप ब्राह्मणों से पितरों की पूजा और तर्पण आदि करवाएं।  इसके बाद आप पितरों की जो निमित्त अग्नि होगी उसमें दही, गाय का दूध, खीर व घी आदि अर्पित करें। किसी को भोजन देने से पहले आपको भोजन में से 4 ग्रास निकालने हैं।

पहला गाय के लिए, दूसरा कुत्ते के लिए, तीसरा कौवे के लिए और  चौथा ग्रास अतिथि के लिए। इसके बाद आपको ब्राह्मण को स्नेहपूर्वक भोजन करवाना है। भोजन कराने के बाद आप उनका मुखशुद्धि करवाएं, उन्हें दान दक्षिणा दें और उनका सम्मान करें। इसके बाद ब्राह्मण स्वस्तिवाचन तथा वैदिक पाठ करें और पितरों तथा ग्रहस्थ के लिए शुभकामनाएं प्रदान करें। पितृपक्ष के दौरान पूरे विधि विधान से श्राद्ध किया जाना चाहिए। इससे पितर तो प्रशन्न होते ही हैं और साथ ही घर में सुख शांति बनी रहती है। अगर श्राद्ध कर्म अच्छे से नहीं किया जाता है तो पितर प्रसन्न नहीं होते हैं और घर में कोई न कोई कष्ट लगा ही रहता है। इसीलिए श्राद्ध कर्म पूरे विधि विधान से और रीति रिवाजों के साथ ही किया जाना चाहिए।

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